सावित्री बाई खानोलकर
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हंगरियन पिता और रशियन माता की स्विस पुत्री इवा का जन्म २० जुलाई १९१३ को स्विटज़रलेन्ड में हुआ. इवा के जन्म के तुरन्त बाद इवा की माँ का देहान्त हो गया. 15-16 वर्ष की उम्र में इवा को माँ की कमी खलने लगी ओर ठीक उन्ही दिनों ( सन 1929 ) ब्रिटेन की सेन्डहर्स्ट मिलिटरी कॉलेज के एक भारतीय छात्र विक्रम खानोलकर ऑल्पस के पहाड़ों पर छुट्टी मनाने ओर स्कीइंग करने पहुँचे. जैसा होता आया है, विक्रम ओर इवा का परिचय हुआ, विक्रम ने इवा को भारतीय संस्कृति की बातें बताई, विक्रम ओर इवा किसी को सपने में भी ख़्याल नहीं था कि नियती उन के साथ क्या खेलने वाली है! छुट्टियां पुरी होने पर दोनों अपने अपने घर लौट गए.
पढ़ाई पुरी करने के बाद विक्रम भारत लौटे ओर भारतीय सेना की 5/11सिख बटालियन से जुड़ गये. अब उनका नाम था कैप्टन विक्रम खानोलकर.
उनकी सबसे पहली पोस्टिंग ओरंगाबाद में हुई. इवा के साथ उनका पत्राचार अभी तक जारी था, एक दिन भारत आ पहुँची. इवा ने भारत आते ही विक्रम को अपना निर्णय बता दिया कि वह उन्हीं से शादी करेगी. घर वालों के थोड़े विरोध के बाद सभी ने इवा को अपना लिया और 1932 में महाराष्ट्रियन रिवाजों के साथ इवा ओर विक्रम का विवाह हो गया. विवाह के बाद इवा का नया नाम रखा गया सावित्री, ओर इन्हीं सावित्री ने सावित्री बाई खानोलकर के नाम से भारतीय सैन्य इतिहास की एक तारीख रच दी.
विवाह के बाद सावित्री बाई ने पुर्ण रुप से भारतीय संस्कृति को अपना लिया, हिन्दु धर्म अपनाया, महाराष्ट्र के गाँव-देहात में पहने जाने वाली 9 वारी साड़ी पहनना शुरु कर दिया ओर 1-2 वर्ष में तो सावित्री बाई शुद्ध मराठी ओर हिन्दी भाषा बोलने लगी; मानों उनका जन्म भारत में ही हुआ हो.
कैप्टन विक्रम जब मेजर बने और उनका तबादला पटना हो गया ओर सावित्री बाई के जीवन को एक नयी दिशा मिली, उन्होने पटना विश्वविध्यालय में संस्कृत नाटक, वेदांत, उपनिषद और हिन्दु धर्म पर गहन अध्ययन किया. इन विषयों पर उनकी पकड़ इतनी मज़बूत हो गयी कि उन्होने स्वामी राम कृष्ण मिशन में इन विषयों पर प्रवचन देने लगीं, सावित्री बाई चित्रकला और पैन्सिल रेखाचित्र बनाने भी माहिर थी तथा भारत के पौराणिक प्रसंगों पर चित्र बनाना उनके प्रिय शौक थे. उन्होने पं. उदय शंकर ( पं. रवि शंकर के बड़े भाई )से नृत्य सीखा, यानि एक आम भारतीय से ज्यादा भारतीय बन चुकी थी. उन्होने Saint of Maharashtra एवं sanskrit Dictonery of Names नामक दो पुस्तकें भी लिखी.
मेजर विक्रम अब लेफ़्टिनेन्ट कर्नल बन चुके थे, भारत की आज़ादी के बाद 1947 में भारत पाकिस्तान युद्ध में शहीद हुए बहादुर सैनिकों को सम्मनित करने के लिये पदक की आवश्यकता महसूस हुई.मेजर जनरल हीरा लाल अट्टल ने पदकों के नाम पसन्द कर लिये थे परमवीर चक्र, महावीर चक्र ओर वीर चक्र. बस अब उनकी डिजाईन करने की देरी थी, मेजर जनरल अट्टल को इस के लिये सावित्री बाई सबसे योग्य लगी, क्यों कि सावित्री बाई को भारत के पौराणिक प्रसंगों की अच्छी जानकारी थी, ओर अट्टल भारतीय गौरव को प्रदर्शित करता हो ऐसा पदक चाहते थे, सावित्री बाई ने उन्हें निराश नही किया और ऐसा पदक बना कर दिया जो भारतीय सैनिकों के त्याग और समर्पण को दर्शाता है.
सावित्री बाई को पदक की डिजाईन के लिये इन्द्र का वज्र सबसे योग्य लगा क्यों कि वज्र बना था महर्षि दधीची की अस्थियों से, वज्र के लिये महर्षि दधीची को अपने प्राणों तथा देह का त्याग करना पडा़. महर्षि दधीची की अस्थियों से बने शस्त्र वज्र को धारण कर इन्द्र वज्रपाणी कहलाये ओर वृत्रासुर का संहार किया.
पदक बनाया गया 3.5 से.मी का कांस्य धातु से और संयोग देखिये सबसे पहले पदक मिला किसे? सावित्री बाई की पुत्री के देवर मेजर सोमनाथ शर्मा को जो वीरता पुर्वक लड़ते हुए 3 नवंबर 1947 को शहीद हुए. उक्त युद्ध में मेजर सोमनाथ शर्मा की टुकड़ी ने 300 पकिस्तानी सैनिकों का सफ़ाया किया, भारत के लगभग 22 सैनिक शहीद हुए और श्रीनगर हवाई अड्डे तथा कश्मीर को बचाया.
मेजर सोमनाथ शर्मा को उनकी शहादत के लगभग 3 वर्ष बाद 26 जनवरी 1950 को यह पदक प्रदान किया गया. मेजर जनरल विक्रम खानोलकर के 1952 में देहांत हो जाने के बाद सावित्री बाई ने अपने जीवन को अध्यात्म की तरफ़ मोड लिया, वे दार्जिलिंग के राम कृष्ण मिशन में चली गयी. सावित्री बाई ने अपनी जिन्दगी के अन्तिम वर्ष अपनी पुत्री मृणालिनी के साथ गुजारे ओर 26 नवम्बर 1990 को उनका देहान्त हुआ.