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भारतीय संविधान - विकिपीडिया

भारतीय संविधान

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भारत

यह लेख यह श्रेणी के सम्बन्ध में है:

भारत की राजनीति


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  • विदेश संबंध

अन्य देश • प्रवेशद्वार:राजनीति
प्रवेशद्वार:भारत सरकार
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भारत राज्‍यों का एक संघ है। यह संसदीय प्रणाली की सरकार वाला एक स्वतंत्र प्रभुसत्ता सम्पन्न समाजवादी लोकतंत्रात्मक गणराज्य है। यह गणराज्य भारत के संविधान के अनुसार शासित है। भारत का संविधान संविधान सभा द्वारा 26 नवम्बर, 1949 को पारित हुआ तथा 26 जनवरी, 1950 से प्रभावी हुआ। 26 जनवरी का दिन भारत में गणतन्त्र दिवस के रूप में मनाया जाता है।

भारत का संविधान दुनिया का सबसे बडा लिखित संविधान है। इसमें 395 अनुच्छेद तथा 12 अनुसूचियां हैं। संविधान में सरकार के संसदीय स्‍वरूप की व्‍यवस्‍था की गई है जिसकी संरचना कुछ अपवादों के अतिरिक्त संघीय है। केन्‍द्रीय कार्यपालिका का सांविधानिक प्रमुख राष्‍ट्रपति है। भारत के संविधान की धारा 79 के अनुसार, केन्‍द्रीय संसद की परिषद् में राष्‍ट्रपति तथा दो सदन है जिन्‍हें राज्‍यों की परिषद् राज्‍यसभा तथा लोगों का सदन लोकसभा के नाम से जाना जाता है। संविधान की धारा 74 (1) में यह व्‍यवस्‍था की गई है कि राष्‍ट्रपति की सहायता करने तथा उसे सलाह देने के लिए एक मंत्रिपरिषद् होगी जिसका प्रमुख प्रधान मंत्री होगा, राष्‍ट्रपति इस मंत्रिपरिषद् की सलाह के अनुसार अपने कार्यों का निष्‍पादन करेगा। इस प्रकार वास्‍तविक कार्यकारी शक्ति मंत्रिपरिषद् में विहित है जिसका प्रमुख प्रधानमंत्री है।

मंत्रिपरिषद् सामूहिक रूप से लोगों के सदन (लोक सभा) के प्रति उत्तरदायी है। प्रत्‍येक राज्‍य में एक विधान सभा है। कुछ राज्‍यों में एक ऊपरी सदन है जिसे विधान परिषद् कहा जाता है। राज्‍यपाल राज्‍य का प्रमुख है। प्रत्‍येक राज्‍य का एक राज्‍यपाल होगा तथा राज्‍य की कार्यकारी शक्ति उसमें विहित होगी। मंत्रिपरिषद्, जिसका प्रमुख मुख्‍य मंत्री है, राज्‍यपाल को उसके कार्यकारी कार्यों के निष्‍पादन में सलाह देती है। राज्‍य की मंत्रिपरिषद् सामूहिक रूप से राज्‍य की विधान सभा के प्रति उत्तरदायी है।

संविधान की सातवीं अनुसूची में संसद तथा राज्‍य विधायिकाओं के बीच विधायी शक्तियों का वितरण किया गया है। अवशिष्‍ट शक्तियाँ संसद में विहित हैं। केन्‍द्रीय प्रशासित भू- भागों को संघराज्‍य क्षेत्र कहा जाता है।


अनुक्रम

[संपादित करें] इतिहास

द्वितीय विश्वयुद्ध की समाप्ति के बाद जुलाई १९४५ में ब्रिटेन में भारत संबन्धी अपनी नई नीति की घोषणा की तथा भारत की संविधान सभा के निर्माण के लिए एक कैबिनेट मिशन भारत भेजा। जिसमें ३ मंत्री थे। १५ अगस्त, १९४७ को भारत के आज़ाद हो जाने के बाद यह संविधान सभा की घोषणा हुई और इसने अपना कार्य ९ दिसम्बर १९४७ से आरम्भ कर दिया। संविधान सभा के सदस्य भारत के राज्यों की सभाओं के निर्वाचित सदस्यों के द्वारा चुने गए थे। जवाहरलाल नेहरू, डॉ राजेन्द्र प्रसाद, सरदार वल्लभ भाई पटेल, श्यामा प्रसाद मुखर्जी, मौलाना अबुल कलाम आजाद आदि इस सभा के प्रमुख सदस्य थे। इस संविधान सभा ने २ वर्ष, ११ माह, १८ दिन मे कुल १६६ दिन बैठक की। इसकी बैठकों में प्रेस और जनता को भाग लेने की स्वतन्त्रता थी।


[संपादित करें] संविधान क्या है ?

यह वह विधि है जो किसी राष्ट्र के शाशन का आधार है ,उसके चरित्र ,संगठन , को निर्धारित करती है तथा उसके प्रयोग विधि को बताती है ,यह राष्ट्र की परम विधि है तथा विशेष वैधानिक स्तिथि का उपभोग करती है
विशेष वैधानिक स्तिथि का लाभ - यह क़ानून सीधे जनता से अपनी सत्ता प्राप्त करता है
जेसे संविधान की उद्देशिका इस प्रकार शुरू होती है 'हम भारत के लोग ' दूसरी सभी रूधिया, विधि ,कानूनी मान्यता तो रखती है परन्तु संविधान की तुलना मे गौण होती है
सभी प्रचलित कानूनों को अनिवार्य रूप से संविधान की भावना के अनुरूप होना चाहिए यदि वे इसका उल्लंघन करेंगे तो वे अस्वेधानिक घोषित कर दिए जाते है

[संपादित करें] संविधान के प्रकार

गेर लिखित जेसे ब्रिटेन का है
लिखित जेसे भारत का है
१ गैर लिखित संविधान कभी भी सहिन्ताबध नही किया जाता है उसमे कोई अनुच्छेद या अनुसूची नही होती है यदपि जनता को उसकी जानकारी होती है
वह्नी लिखित संविधान एक वैधानिक पत्र के रूप मे सहिन्ताबध होता है
२ अलिखित संविधान निर्मित ना होकर विकसित होता है जेसे ब्रिटेन का संविधान मैग्नाकार्टा से शुरू होता है तथा आज भी जारी है
वाही लिखित संविधान मात्र संविधान सभा की देन होते है ,उनके शुरू होने तथा बन जाने के बाद समाप्त होने की तिथि जरूर होती है
३ अलिखित संविधान मे संसद सर्वोच्च सत्ता होती है वे संविधान से परे होती है उस पर प्रभुता रखती है संसद के सभी कानून अपने आप संविधान का हिस्सा बन जाते है
किंतु लिखित सविधान मे संविधान सर्वोपरि होता है न कि संसद
४ अलिखित संविधान हमेशा लचीला होगा उसमे इच्छा अनुसार बदलाव लाये जा सकते है
किंतु लिखित संविधान सुनम्य ,कठोर तथा मिश्रित प्रकार का हो सकता है
अन्य प्रकार से वर्गीकरण
१ एकात्मक संविधान
२ संघात्मक संविधान


[संपादित करें] भारतीय संविधान की प्रकृति

संविधान प्रारूप समिति तथा सर्वोच्च न्यायालय ने इस को संघात्मक संविधान माना है परन्तु विद्वानों मे मतभेद है
अमेरीकी विद्वान इस को छदम संघात्मक संविधान कहते है
पूर्वी सविन्धन्वेता कहते है कके अमेरिकी संविधान ही एक्मात्र संघात्मक संविधान नही हो सकता है
संविधान का संघात्मक होना उसमे निहित संघात्मक लक्षणों पे निर्भर करता है

[संपादित करें] संघ की आधारभूत विशेषताए


शक्ति विभाजन - सर्वाधिक महत्वपूर्ण लक्षण है , राज्य की शक्तिया केंद्रीय तथा राज्य सरकारों मे विभाजित होती है शक्ति विभाजन के चलते द्वेध सत्ता [केन्द्र -राज्य सत्ता ] होती है
दोनों सत्ताए एक दुसरे के अधीन नही होती है ,वे संविधान से उत्प्पन तथा नियंत्रित होती है दोनों की सत्ता अपने अपने क्षेत्रो मे पूर्ण होती है
संविधान की सर्वोचता - संविधान के उपबंध संघ तथा राज्य सरकारों पे समान रूप से बाद्याकारी होते है [केन्द्र तथा राज्य शक्ति विभाजित करने वाले अनुच्झेद
1 अनुच्छेद 54,55,73,162,241
2 भाग -5 सर्वोच्च न्यायालय उच्च न्यायालयराज्य तथा केन्द्र के मध्य वैधानिक सम्बन्ध
3 अनुच्छेद 7 के अंतर्गत कोई भी सूची
4 राज्यो का संसद मे प्रतिनिधित्व
5 संविधान मे संशोधन की शक्ति अनु 368इन सभी अनुच्छेदो मे संसद अकेले संशोधन नही ला सकती है उसे राज्यो की सहमति भी चाहिए
अन्य अनुच्छेद शक्ति विभाजन से सम्बन्धित नही है
3 लिखित सविन्धान अनिवार्य रूप से लिखित रूप मे होगा क्योंकि उसमे शक्ति विभाजन का स्पषट वण्रन आवश्यक है। अतः संघ मे लिखित सविन्धान अवश्य होगा
4 सविन्धान की कठोरता इसका अर्थ है सविन्धान संशोधन मे राज्य केन्द्र दोनो भाग लेम्गे
5 न्यायालयो की अधिकारिता- इसका अर्थ है कि केन्द्र-राज्य कानून की व्याख्या हेतु एक निष्पक्ष तथा स्वतंत्र सत्ता पर निर्भर करेंगे
विधि द्वारा स्थापित 1.1 न्यायालय ही संघ-राज्य शक्तियो के विभाजन का पर्यवेक्षण करेंगे
1.2 न्यायालय सविन्धान के अंतिम व्याख्याकर्ता होंगे भारत मे यह सत्ता सर्वोच्च न्यायालय के पास है ये पांच शर्ते किसी सविन्धान को संघात्मक बनाने हेतु अनिवार्य है
भारत मे ये पांचो लक्षण सविन्धान मे मौजूद है अत्ः यह संघात्मक है परंतु

[संपादित करें] भारतीय संघ मे कुछ विभेदकारी विशेषताए भी है

1 यह संघ राज्यॉ क़ॆ परस्पर सम्झोते से नही बना है
2 राज्य अपना पृथक सविन्धान नही रख सकते है केवल एक ही सविन्धान केन्द्र तथा राज्य दोनो पर लागू होता है
3 भारत मे द्वैध नागरिकता नही है । केवल भारतीय नागरिकता है
4 भारतीय सविन्धान मे आपात काल लागू करने के उपबन्ध है[352 अनुच्छेद] इसके लागू होने पर राज्य-केन्द्र शक्ति पृथक्करण समाप्त हो जायेगा तथा वह एकात्मक सविन्धान बन जायेगा। इस स्थिति मे केन्द्र-राज्यो पर पूर्ण सम्प्रभु हो जाता है
5 राज्यो का नाम, क्षेत्र तथा सीमा केन्द्र कभी भी परिवत्रित कर सकता है [बिना राज्यो की सहमति से] [अनुच्छेद 3] अत्ः राज्य भारतीय संघ के अनिवार्य घटक नही है । केन्द्र संघ को पुर्ननिर्मित कर सकती है
6 सविन्धान की 7 वी अनुसूची मे तीन सूचिया है संघीय , राज्य , समवर्ती । इनके विषयो का वितरण केन्द्र के पक्ष मे है
6.1 संघीय सूची मे सर्वाधिक महत्वपूर्ण विषय है
6.2 इस सूची पर केवल संसद का अधिकार है
6.3 राज्य सूची के विषय कम महत्वपूर्ण है 5 विशेष स्थितियो मे राज्य सूची पर संसद विधि निर्माण कर सकती है किंतु एक भी स्थिति मे राज्य केन्द्र हेतु निर्माण नही कर सकते है
क1 अनु 249—राज्य सभा यह प्रस्ताव पारित कर दे कि रास्त्र हित हेतु यह आवश्यक है [2\3 बहुमत से] किंतु यह बन्धन मात्र 1 साल हेतु लागू होता है
क2 अनु 250— राष्ट् आपात काल लागू होने पर संसद राज्य सूची के विषयो पर विधि निर्माण की शक्ति खुद ब खुद मिल जाती है
क3 अनु 252—दो या अधिक राज्यो की विधायिका प्रस्ताव पास कर राज्य सभा को यह अधिकार दे सकती है [केवल सम्भ्न्धित राज्यो पर]
क4 अनु253--- अंतराश्त्रीय समझोते के अनुपालन मे संसद राज्य सूची विषय पर विधि निर्मित कर सकती है
क5 अनु 356—जब किसी राज्य मे राष्टृ पति शासन लागू होता है तभ संसद उस स्थिति मे उस राज्य हेतु विधि निर्माण कर सकती है
7 अनुच्छेद 155 – राज्योपालो की नियुक्ति पूर्णत केन्द्र की इच्छा से होती है इस प्रकार केन्द्र राज्यो पर नियंत्रण रख सकता है
8 अनु 360 – वित्तीय आपातकाल की दशा मे राज्यो के वित्त पर भी केन्द्र का नियंत्रण हो जाता है । इस दशा मे राज्यो को धन व्यय करने हेतु भी केन्द्र निर्देश दे सकता है
9 प्रशासिनक निर्देश [अनु 256-257] केन्द्र राज्यो को राज्यो की संचार व्यवस्था किस तरह लागू की जाये के बारे मे निर्देश दे सकता है ये निर्देश किसी भी समय दिये जा सकते है राज्य इनका पालन करने हेतु बाध्य है ।यदि राज्य इन निर्देशो का पालन न करे तो राज्य मे सवैन्धानिक तंत्र असफल होने का अनुमान लगाया जा सकता है
10 अनु 312 मे अखिल भारतीय सेवाओ का प्रावधान है ये सेवक नियुक्ति, प्रशिक्षण, अनुशासनात्मक क्षॆत्रो मे पूर्णत केन्द्र के अधीन है जबकि ये सेवा राज्यो मे देते है राज्य सरकारो का उन पर कोई नियंत्रण नही है
11 एकीक्रत न्यायपालिका
12 राज्यो की कार्यपालिका शक्तिया संघीय कार्य पालिका शक्तियो पर प्रभावी नही हो सकती है।

[संपादित करें] फेडरेशन तथा कनफेडरेशन का भेद

[संपादित करें] फेडरेशन

  1. दो या अधिक संघटको का औपचारिक संगठन
  2. सम्प्रभु तथा स्वतंत्र परंतु उसके संघटक सम्प्रभु तथा स्वतंत्र नही होते
  3. संघटक संघ से स्वतंत्र होने की शक्ति नही रखते है
  4. संघ तथा उसके निवासियो के मध्य वैधानिक सम्बन्ध होता है [नागरिकता] नागरिको के अधिकार तथा कर्तव्य होते है

[संपादित करें] कनफेडरेशन

  1. दो या अधिक संघटको का ढीला संघठन [रास्त्र मन्डल ]
  2. संघटक सम्प्रभु तथा स्वतंत्र होते है परंतु खुद कनफेडरेशन मे ये गुण नही होते है
  3. संघटक स्वतंत्र होने की शक्ति रखते है
  4. निवासी परिसंघ के नागरिक नही होते बल्कि उसके संघट्को के नागरिक होते है

[संपादित करें] शक्ति पृथक्करण का सिद्धांत

यह सिद्धांत फ्रेंच दार्शनिक मान्टेस्कयू ने दिया था उसके अनुसार राज्य की शक्ति उसके तीन भागो कार्य , विधान, तथा न्यायपालिकाओ मे बांट देनी चाहिये
ये सिद्धांत राज्य को सर्वाधिकारवादी होने से बचा सकता है तथा व्यक्ति की स्वतंत्रता की रक्षा करता है
अमेरिकी सविन्धान पहला ऐसा सविन्धान था जिस मे ये सिद्धांत अपनाया गया था
शक्ति पृथक्करण का सिद्धांत भारतीय सविन्धान मे------ सविन्धान मे इसका साफ वर्णन ना होकर सकेत मात्र है इस हेतु सविन्धान मे तीनो अंगो का पृथक वर्णन है संसदीय लोकतंत्र होने के कारण भारत मे कार्यपालिका तथा विधायिका मे पूरा अलगाव नही हो सका है कार्यपालिका[मंत्रीपरिषद] विधायिका मे से ही चुनी जाती है तथा उसके निचले सदन के प्रति ही उत्तरदायी होती है
अनु 51 के अनुसार कार्यपालिका तथा न्यायपालिका को पृथक होना चाहिए इस लिये ही 1973 मे दंड प्रक्रिया सन्हिता पारित की गयी जिस के द्वारा जिला मजिस्टृटो की न्यायिक शक्ति लेकर न्यायिक मजिस्टृटो को दे दी गयी थी

[संपादित करें] संविधान की उद्देशिका

संविधान के उद्देश्यों को प्रकट करने हेतु प्राय: उनसे पहले एक उद्देशिका प्रस्तुत की जाती है। भारतीय संविधान की उद्देशिका अमेरिकी संविधान से प्रभावित तथा विश्व मे सर्वश्रेष्ठ मानी जाती है। उद्देशिका के माध्यम सं भारतीय संविधान का सार, अपेक्षाएँ, उद्देश्य उसका लक्ष्य तथा दर्शन प्रकट होता है। उद्देशिका यह घोषणा करती है कि संविधान अपनी शक्ति सीधे जनता से प्राप्त करता है इसी कारण यह ‘हम भारत के लोग’ इस वाक्य से प्रारम्भ होती है। केहर सिंह बनाम भारत संघ के वाद मे कहा गया था कि संविधान सभा भारतीय जनता का सीधा प्रतिनिधित्व नही करती अत: संविधान विधि की विशेष अनुकृपा प्राप्त नही कर सकता, परंतु न्यायालय ने इसे खारिज करते हुए संविधान को सर्वोपरि माना है जिस पर कोई प्रश्न नही उठाया जा सकता है।

[संपादित करें] संविधान के तीन भाग

संविधान के तीन प्रमुख भाग हैं। भाग एक में संघ तथा उसका राज्यक्षेत्रों के विषय में टिप्पणीं की गई है तथा यह बताया गया है कि राज्य क्या हैं और उनके अधिकार क्या हैं। दूसरे भाग में नागरिकता के विषय में बताया गया है कि भारतीय नागरिक कहलाने का अधिकार किन लोगों के पास है और किन लोगों के पास नहीं है। विदेश में रहने वाले कौन लोग भारतीय नागरिक के अधिकार प्राप्त कर सकते हैं और कौन नहीं कर सकते। तीसरे भाग में भारतीय संविधान द्वारा प्रदत्त मौलिक अधिकारों के विषय में विस्तार से बताया गया है।

[संपादित करें] संविधान भाग 4 नीति निर्देशक तत्व

भाग 3 तथा 4 मिल कर संविधान की आत्मा तथा चेतना कहलाते है क्यों कि किसी भी स्वतंत्र राष्ट्र के लिए मौलिक अधिकार तथा निति निर्देश देश के निर्माण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। नीति निर्देशक तत्व जनतांत्रिक संवैधानिक विकास के नवीनतम तत्व हैं सर्वप्रथम ये आयरलैंड के संविधान मे लागू किये गये थे। ये वे तत्व है जो संविधान के विकास के साथ ही विकसित हुए है। इन तत्वॉ का कार्य एक जनकल्याणकारी राज्य की स्थापना करना है। भारतीय संविधान के इस भाग में नीति निर्देशक तत्वों का रूपाकार निश्चित किया गया है, मौलिक अधिकार तथा नीति निर्देशक तत्व मे भेद बताया गया है और नीति निदेशक तत्वों के महत्व को समझाया गया है।

[संपादित करें] भाग 4 क मूल कर्तव्य

[संपादित करें] भाग 5 संघ

[संपादित करें] पाठ 1 संघीय कार्यपालिका

संघीय कार्यपालिका मे राष्ट्रपति ,उपराष्ट्रपति,मंत्रिपरिषद तथा महान्यायवादी आते है। रामजवाया कपूर बनाम पंजाब राज्य वाद मे सुप्रीम कोर्ट ने कार्यपालिका शक्ति को निम्न प्रकार से परिभाषित किया है-

  • 1 विधायिका न्यायपालिका के कार्यॉ को पृथक करने के पश्चात सरकार का बचा कार्य ही कार्यपालिका है।
  • 2 कार्यपालिका मॅ देश का प्रशासन, विधियॉ का पालन सरकारी नीति का निर्धारण ,विधेयकॉ की तैयारी करना ,कानून व्यव्स्था बनाये रखना सामाजिक आर्थिक कल्याण को बढावा देना विदेश नीति निर्धारित करना आदि आता है।

[संपादित करें] राष्ट्रपति

संघ का कार्यपालक अध्यक्ष है संघ के सभी कार्यपालक कार्य उस के नाम से किये जाते है अनु 53 के अनुसार संघ की कार्यपालक शक्ति उसमॅ निहित है इन शक्तियॉ/कार्यों का प्रयोग क्रियांवय्न राष्ट्रपति सविन्धान के अनुरूप ही सीधे अथवा अधीनस्थ अधिकारियॉ के माध्यम से करेगा। वह सशस्त्र सेनाओं का सर्वोच्च सेनानायक भी होता है,सभी प्रकार के आपातकाल लगाने व हटाने वाला युद्ध शांति की घोषणा करने वाला होता है वह देश का प्रथम नागरिक है तथा राज्य द्वारा जारी वरीयता क्रम मे उसका सदैव प्रथम स्थान होता है। भारतीय राष्ट्रपति का भारतीय नागरिक होना आवश्यक है तथा उसकी आयु कम से कम ३५ वर्ष होनी चाहिए। राष्ट्रपति का चुनाव, उस पर महाभियोग की अवस्थाएँ, उसकी शक्तियाँ, संविधान के अन्तर्गत राष्ट्रपति की स्थिति, राष्ट्रपति की संसदीय शक्ति तथा राष्ट्रपति की विवेकाधीन शक्तियों का वर्णन इस अध्याय में किया गया है।

[संपादित करें] उपराष्ट्रपति

[संपादित करें] मंत्रिपरिषद

संसदीय लोकतंत्र के मह्त्वपूर्ण सिद्धांत 1. राज्य प्रमुख सरकार प्रमुख न होकर मात्र संवैधानिक प्रमुख ही होता है
2. वास्तविक कार्यपालिका शक्ति मंत्रिपरिषद जो कि सामूहिक रूप से संसद के निचले सदन के सामने उत्तरदायी होगा के पास होगी
3 मंत्रिपरिषद के सद्स्य संसद के सद्स्यों से लिए जायेंगे

[संपादित करें] परिषद का गठन

1. प्रधानमंत्री के पद पे आते ही यह परिषद गठित हो जाती है यह आवश्यक नही है कि उसके साथ कुछ अन्य मंत्री भी शपथ ले केवल प्रधानमंत्री ही मंत्रिपरिषद होगा
2 मंत्रिपरिषद की सद्स्य संख्या पर मौलिक संविधान मे कोई रोक नही थी किंतु 91 वे संशोधन के द्वारा मंत्रिपरिषद की संख्या
लोकसभा के सद्स्य संख्या के 15% तक सीमित कर दी गयी वही राज्यों मेभी मंत्रीपरिषद की
संख्या विधानसभा के 15% से अधिक नही होगी पंरंतु न्यूनतम 12 मंत्री होंगे

[संपादित करें] मंत्रियों की श्रेणियाँ

संविधान मंत्रियों की श्रेणी निर्धारित नही करता यह निर्धारण अंग्रेजी प्रथा के आधार पर किया गया है
कुल तीन प्रकार के मंत्री माने गये है

  • 1. कैबिनेट मंत्री—सर्वाधिक वरिष्ठ मंत्री है उनसे ही कैबिनेट का गठन होता है मंत्रालय मिलने पर वे उसके अध्यक्ष होते है उनकी सहायता हेतु राज्य मंत्री तथा उपमंत्री होते है उन्हें कैबिनेट बैठक मे बैठने का अधिकार होता है अनु 352 उन्हें मान्यता देता है

कृप्या सभी कैबिनेट मंत्रालयों ,राज्य मंत्रालय की सूची पृथक से जोड दे

  • 2. राज्य मंत्री द्वितीय स्तर के मंत्री होते है सामान्यत उनहे मंत्रालय का स्वतंत्र प्रभार नही मिलता किंतु प्रधानमंत्री चाहे तो यह कर सकता है उन्हें कैबिनेट बैठक मे आने का अधिकार नही होता।
  • 3. उपमंत्री कनिष्ठतम मंत्री है उनका पद सृजन कैबिनेट या राज्य मंत्री को सहायता देने हेतु किया जाता है वे मंत्रालय या विभाग का स्वतंत्र प्रभार भी नही लेते है।
  • 4. संसदीय सचिव सत्तारूढ दल के संसद सद्स्य होते है इस पद पे नियुक्त होने के पश्चात वे मंत्री गण की संसद तथा इसकी समितियॉ मे कार्य करने मे सहायता देते है वे प्रधान मंत्री की इच्छा से पद ग्रहण करते है वे पद गोपनीयता की शपथ भी प्रधानमंत्री के द्वारा ग्रहण करते है वास्तव मे वे मंत्री परिषद के सद्स्य नही होते है केवल मंत्री का दर्जा प्राप्त होता है।

[संपादित करें] मंत्रिमंडल

मंत्रि परिषद एक संयुक्त निकाय है जिसमॆं 1,2,या 3 प्रकार के मंत्री होते है यह बहुत कम मिलता है चर्चा करता है या निर्णय लेता है वहीं मंत्रिमंडल मे मात्र कैबिनेट प्रकार के मंत्री होते है यह समय समय पर मिलती है तथा समस्त महत्वपूर्ण निर्णय लेती है इस के द्वारा स्वीकृत निर्णय अपने आप परिषद द्वारा स्वीकृत निर्णय मान लिये जाते है यही देश का सर्वाधिक मह्त्वपूर्ण निर्णय लेने वाला निकाय है

  • सम्मिलित उत्तरदायित्व अनु 75[3] के अनुसार मंत्रिपरिषद संसद के सामने सम्मिलित रूप से उत्तरदायी है इसका लक्ष्य मंत्रिपरिषद मे संगति लाना है ताकि उसमे आंतरिक रूप से विवाद पैदा ना हो।
  • व्यक्तिगत उत्तरदायित्व अनु 75[2] के अनुसार मंत्री व्यक्तिगत रूप से राष्ट्रपति के सामने उत्तरदायी होते है किंतु यदि प्रधानमंत्री की सलाह ना हो तो राष्ट्रपति मंत्री को पद्च्युत नही कर सकता है।

[संपादित करें] भारत का महान्यायवादी

[संपादित करें] प्रधानमंत्री

प्रधानमंत्री की दशा समानों मे प्रधान की तरह है वह कैबिनेट का मुख्य स्तंभ है मंत्री परिषद का मुख्य सद्स्य भी वही है अनु 74 स्पष्ट रूप से मंत्रिपरिषद की अध्यक्षता तथा संचालन हेतु प्रधानम्ंत्री की उपस्तिथि आवश्यक मानता है उसकी मृत्यु या त्यागपत्र की द्शा मे समस्त परिषद को पद छोडना पडता है वह अकेले ही मंत्री परिषद का गठन करता है राष्ट्रपति मंत्री गण की नियुक्ति उस की सलाह से ही करता है मंत्री गण के विभाग का निर्धारण भी वही करता है कैबिनेट के कार्य का निर्धारण भी वही करता है देश के प्रशासन को निर्देश भी वही देता है सभी नीतिगत निर्णय वही लेता है राष्ट्रपति तथा मंत्री परिषद के मध्य संपर्क सूत्र भी वही है परिषद का प्रधान प्रवक्ता भी वही है परिषद के नाम से लडी जाने वाली संसदीय बहसॉ का नेतृत्व करता है संसद मे परिषद के पक्ष मे लडी जा रही किसी भी बहस मे वह भाग ले सकता है मन्त्री गण के मध्य समन्वय भी वही करता है वह किसी भी मंत्रालय से कोई भी सूचना मंगवा सकता है इन सब कारणॉ के चलते प्रधानम्ंत्री को देश का सबसे मह्त्वपूर्ण राजनैतिक व्यक्तित्व माना जाता है

प्रधानमंत्री सरकार के प्रकार

प्रधानमंत्री सरकार संसदीय सरकार का ही प्रकार है जिसमे प्रधानमंत्री मंत्रि परिषद का नेतृत्व करता है वह कैबिनेट की निर्णय लेने की क्षमता को प्रभावित करता है वह कैबिनेट से अधिक शक्तिशाली है उसके निर्णय ही कैबिनेट के निर्णय है देश की सामान्य नीतियाँ कैबिनेट द्वारा निर्धारित नहीं होती है यह कार्य प्रधानमंत्री अपने निकट सहयोगी चाहे वो मंत्रि परिषद के सद्स्य ना हो की सहायता से करता है जैसे कि इंदिरा गाँधी अपने किचन कैबिनेट की सहायता से करती थी
प्रधानमंत्री सरकार के लाभ

  • 1 तीव्र तथा कठोर निर्णय ले सकती है
  • 2 देश को राजनैतिक स्थाईत्व मिलता है

इससे कुछ हानि भी है

  • 1 कैबिनेट ऐसे निर्णय लेती है जो सत्ता रूढ दल के हित मे हो न कि देश के हित मे
  • 2 इस के द्वारा गैर संवैधानिक शक्ति केन्द्रों का जन्म होता है

कैबिनेट सरकार

संसदीय सरकार का ही प्रकार है इस मे नीति गत निर्णय सामूहिक रूप से कैबिनेट [मंत्रि मंडल ] लेता है इस मे प्रधानमंत्री कैबिनेट पे छा नही जाता है इस के निर्णय सामान्यत संतुलित होते है लेकिन कभी कभी वे इस तरह के होते है जो अस्पष्ट तथा साहसिक नही होते है। 1989 के बाद देश मे प्रधानमंत्री प्रकार का नही बल्कि कैबिनेट प्रकार का शासन रहा है।

[संपादित करें] कामचलाऊ सरकार

बहुमत समाप्त हो जाने के बाद जब मंत्रि परिषद त्यागपत्र दे देती है तब कामचलाऊ सरकार अस्तित्व मे आती है अथवा प्रधानम्ंत्री की मृत्यु/ त्यागपत्र की दशा मे यह स्थिति आती है। यह सरकार अंतरिम प्रकृति की होती है यह तब तक स्थापित रहती है जब तक नयी मंत्रिपरिषद शपथ ना ले ले यह इसलिए काम करती है ताकि अनु 74 के अनुरूप एक मंत्रिपरिषद राष्ट्रपति की सहायता हेतु रहे। वी.एन.राव बनाम भारत संघ वाद मे सुप्रीमकोर्ट ने माना था कि मंत्रि परिषद सदैव मौजूद रहनी चाहिए यदि यह अनुपस्थित हुई तो राष्ट्रपति अपने काम स्वंय करने लगेगा जिस से सरकार का रूप बदल कर राष्ट्रपति हो जायेगा जो कि संविधान के मूल ढाँचे के खिलाफ होगा। यह कामचलाऊ सरकार कोई भी वित्तीय/नीतिगत निर्णय नही ले सकती है क्योंकि उस समय लोक सभा मौजूद नही रहती है वह केवल देश का दैनिक प्रशासन चलाती है। इस प्रकार की सरकार के सामने सबसे विकट स्थिति तब आ गयी थी जब अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार को 1999 मे कारगिल युद्ध का संचालन करना पडा था। किंतु विकट दशा मे इस प्रकार की सरकार भी कोई भी नीति निर्णय ले सकती है।

[संपादित करें] सुस्थापित परंपराए

एक संसदीय सरकार में ये पंरपराए ऐसी प्रथाएँ मानी जाती है जो सरकार के सभी अंगों पर वैधानिक रूप
से लागू मानी जाती है उनका वर्णन करने के लिये कोई विधान नहीं होता है ना ही संविधान मे किसी देश के शासन के बारे मे पूर्ण वर्णन किया जा सकता है संविधान निर्माता भविष्य मे होने वाले विकास तथा देश के शासन पर उनके प्रभाव का अनुमान नहीं लगा सकते अतः वे उनके संबंध मे संविधान में प्रावधान भी नहीं कर सकते है
इस तरह संविधान एक जीवित शरीर तो है परंतु पूर्ण वर्णन नही है इस वर्णन मे बिना संशोधन लाये परिवर्तन भी नहीं हो सकता है वही पंरपराए संविधान के प्रावधानॉ की तरह वैधानिक नहीं होती वे सरकार के संचालन में स्नेहक का कार्य करते है तथा सरकार का प्रभावी संचालन करने मे सहायक है
पंरपराए इस लिए पालित की जाती है क्योंकि उनके अभाव मे राजनैतिक कठिनाइया आ सकती है इसी कारण उन्हें संविधान का पूरक माना जाता हैब्रिटेन मे हम इनका सबसे विकसित तथा प्रभावशाली रूप देख सकते है
इनके दो प्रकार है प्रथम वे जो संसद तथा मंत्रिपरिषद के मध्य संयोजन का कार्य करती है यथा अविश्वास प्रस्ताव पारित होने पर परिषद का त्यागपत्र दे देना
द्वितीय वे जो विधायिका की कार्यवाहिय़ों से संबंधित है जैसे किसी बिल का तीन बार वाचन संसद के तीन सत्र राष्ट्रपति द्वारा धन बिल को स्वीकृति देना उपस्पीकर का चुनाव विपक्ष से करना जब स्पीकर सत्ता पक्ष से चुना गया हो आदि
सरकार के संसदीय तथा राष्ट्रपति प्रकार
संसदीय शासन के समर्थन मे तर्क
1. राष्ट्रपतीय शासन मे राष्ट्रपति वास्तविक कार्य पालिका होता है जो जनता द्वारा निश्चित समय के लिये चुना जाता है वह विधायिका के प्रति उत्तरदायी भी नेही होता है उसके मंत्री भी विधायिका के सदस्य नही होते है तथा उसी के प्रति उत्ततदायी होंगे न कि विधायिका के प्रति
वही संसदीय शासन मे शक्ति मंत्रि परिषद के पास होती है जो विधायिका के प्रति उत्तरदायी होती है
2. भारत की विविधता को देखते हुए संसदीय शासन ज्यादा उपयोगी है इस मे देश के सभी वर्गों के लोग मंत्रि परिषद मे लिये जा सकते है
3. इस् शासन मे संघर्ष होने [विधायिका तथा मंत्रि परिषद के मध्य] की संभावना कम रहती है क्यॉकि मंत्री विधायिका के सदस्य भी होते है
4 भारत जैसे विविधता पूर्ण देश मे सर्वमान्य रूप से राष्ट्रपति का चुनाव करना लगभग असंभव है
5 मिंटे मार्ले सुधार 1909 के समय से ही संसदीय शासन से भारत के लोग परिचय रखते है

[संपादित करें] संविधान भाग पाँच अध्याय 2 संसद

[संपादित करें] राज्य सभा

राज्यों को संघीय स्तर पर प्रतिनिधित्व देने वाली सभा है जिसका कार्य संघीय स्तर पर राज्य हितॉ का संरक्षण करना है। इसे संसद का दूसरा सदन कह्ते है इसके सदस्य दो प्रकार से निर्वाचित होते है राज्यॉ से 238 को निर्वाचित करते है तथा राष्ट्रपति द्वारा 12 को मनोनीत करते है। वर्तमान मे यह संख्या क्रमश 233 ,12 है ये सद्स्य 6 वर्ष हेतु चुने जाते है इनका चयन आनुपातिक प्रतिनिधित्व प्रणाली के द्वारा होता है मत एकल संक्रमणीय प्रणाली से डाले जाते है। मत खुले डाले जाते है.सद्स्य जो निर्वाच्त होना चाहते है देश के किसी भी संसदीय क्षेत्र से एक निर्वाचक के रूप मे पंजीकृत होने चाहिए।

[संपादित करें] राज्यसभा की विशेष शक्तियाँ

राज्यसभा के पास तीन विशेष शक्तिया होती है

  1. अनु. 249 के अंतर्गत राज्य सूची के विषय पर 1 वर्ष का बिल बनाने का हक
  2. अनु. 312 के अंतर्गत नवीन अखिल भारतीय सेवा का गठन 2/3 बहुमत से करना
  3. अनु. 67 ब उपराष्ट्रपति को हटाने वाला प्रस्ताव राज्यसभा मे ही लाया जा सकेगा

[संपादित करें] राज्य सभा का संघीय स्वरूप

  1. राज्य सभा का गठन ही राज्य परिषद के रूप मे संविधान के संघीय स्वरूप का प्रतिनिधित्व देने के लिये हुआ था
  2. राज्य सभा के सद्स्य मंत्रि परिषद के सदस्य बन सकते है जिससे संघीय स्तर पर निर्णय लेने मे राज्य का प्रतिनिधित्व होगा
  3. राष्ट्रपति के निर्वाचन तथा महाभियोग तथा उपराष्ट्रपति के निर्वाचन मे समान रूप से भाग लेती है
  4. अनु 249,312 भी राज्य सभा के संघीय स्वरूप तथा राज्यॉ के संरक्षक रूप मे उभारते है
  5. सभी संविधान संशोधन बिल भी इस के द्वारा पृथक सभा कर तथा 2/3 बहुमत से पास होंगे
  6. संसद की स्वीकृति चाहने वाले सभी प्रस्ताव जो कि आपातकाल से जुडे हो भी राज्यसभा द्वारा पारित होंगे

[संपादित करें] राज्य सभा के गैर संघीय तत्व

  1. संघीय क्षेत्रॉ को भी राज्य सभा मे प्रतिनिधित्व मिलता है जिससे इसका स्वरूप गैर संघीय हो जाता है
  2. राज्यॉ का प्रतिनिधित्व राज्यॉ की समानता के आधार पे नही है जैसा कि अमेरिका मे है वहाँ प्रत्येक राज्य को
    सीनेट मे दो स्थान मिलते है किंतु भारत मे स्थानॉ का आवंटन आबादी के आधार पे किया गया है
  3. राज्य सभा मे मनोनीत सद्स्यों का प्रावधान है

[संपादित करें] राज्य सभा का मह्त्व

  1. किसी भी संघीय शासन मे संघीय विधायिका का ऊपरी भाग संवैधानिक बाध्यता के चलते राज्य हितॉ की संघीय
    स्तर पर रक्षा करने वाला बनाया जाता है इसी सिद्धांत के चलते राज्य सभा का गठन हुआ है ,इसी कारण राज्य सभा को सदनॉ
    की समानता के रूप मे देखा जाता है जिसका गठन ही संसद के द्वितीय सदन के रूप मे हुआ है
  2. यह जनतंत्र की मांग है कि जहाँ लोकसभा सीधे जनता द्वारा चुनी जाती है विशेष शक्तियॉ का उपभोग करती है
    ,लोकतंत्र के सिद्धांत के अनुरूप मंत्रिपरिषद भी लोकसभा के प्रति उत्तरदायी होने के लिये बाध्य करते है किंतु ये दो कारण किसी भी प्रकार
    से राज्यसभा का मह्त्व कम नही करते है
  3. राज्यसभा का गठन एक पुनरीक्षण सदन के रूप मे हुआ है जो लोकसभा द्वारा पास किये गये प्रस्तावॉ की पुनरीक्षा करे
    यह मंत्रिपरिषद मे विशेषज्ञों की कमी भी पूरी कर सकती है क्योंकि कम से कम 12 विशेषज्ञ तो इस मे मनोनीत होते ही है
  4. आपातकाल लगाने वाले सभी प्रस्ताव जो राष्ट्रपति के सामने जाते है राज्य सभा द्वारा भी पास होने चाहिये
  5. राज्य सभा का महत्व यह है कि जहाँ लोकसभा सदैव सरकार से सहमत होती है जबकि राज्यसभा सरकार की नीतिय़ों का निष्पक्ष मूल्याँकन कर सकती है
  6. मात्र नैतिक प्रभाव सरकार पे डालती है किंतु यह लोकस्भा के प्रभाव की तुलना मे ज्यादा होता है

[संपादित करें] राज्य सभा के पदाधिकारी उनका निर्वाचन ,शक्ति ,कार्य, उत्तरदायित्व तथा पदच्युति

[संपादित करें] लोकसभा

यह संसद का लोकप्रिय सदन है जिसमे निर्वाचित मनोनीत सद्स्य होते है संविधान के अनुसार लोकसभा का विस्तार राज्यॉ से चुने गये 530, संघ क्षेत्र से चुने गये 20 और राष्ट्रपति द्वारा मनोनीत 2 आंग्ल भारतीय सदस्यॉ तक होगा वर्तमान मे राज्यॉ से 530 ,संघ क्षेत्रॉ
से 13 तथा 2 आंग्ल भारतीय सद्स्यॉ से सदन का गठन किया गया है
कुछ स्थान अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति हेतु आरक्षित है
प्रत्येक राज्य को उसकी आबादी के आधार पर सद्स्य मिलते है अगली बार लोकसभा के सदस्यॉ की संख्या वर्ष 2026 मे निर्धारित किया जायेगा वर्तमान मे यह 1971 की जनसंख्या पे आधारित है इससे पहले प्रत्येक दशक की जनगणना के आधार पर सदस्य स्थान निर्धारित होते थे यह कार्य बकायदा 84 वे संविधान संशोधन से किया गया था ताकि राज्य अपनी आबादी के आधार पर ज्यादा से ज्यादा स्थान प्राप्त करने का प्रयास नही करे
लोकसभा की कार्यावधि 5 वर्ष है पर्ंतु इसे समय से पूर्व भंग किया जा सकता है

[संपादित करें] लोकसभा की विशेष शक्तियाँ

  1. मंत्री परिषद केवल लोकस्भा के प्रति उत्तरदायी है अविश्वास प्रस्ताव सरकार के विरूद्ध केवल यही लाया जा सकता है
  2. धन बिल पारित करने मे यह निर्णायक सदन है
  3. राष्ट्रीय आपातकाल को जारी रखने वाला प्रस्ताव केवल लोकस्भा मे लाया और पास किया जायेगा

[संपादित करें] लोकसभा के पदाधिकारी

[संपादित करें] स्पीकर

लोकसभा का अध्यक्ष होता है इसका चुनाव लोकसभा सदस्य अपने मध्य मे से करते है इसके दो कार्य है
1. लोकसभा की अध्यक्षता करना उस मे अनुसाशन गरिमा तथा प्रतिष्टा बनाये रखना इस कार्य हेतु वह किसी न्यायालय के सामने उत्तरदायी नही होता है
2. वह लोकसभा से संलग्न सचिवालय का प्रशासनिक अध्यक्ष होता है किंतु इस भूमिका के रूप मे वह न्यायालय के समक्ष उत्तरदायी होगा
उसकी विशेष शक्तियाँ
1. दोनो सदनॉ का सम्मिलित सत्र बुलाने पर स्पीकर ही उसका अध्यक्ष होगा उसके अनुउपस्थित होने पर उपस्पीकर तथा उसके भी न होने पर राज्यसभा का उपसभापति अथवा सत्र द्वारा नांमाकित कोई भी सदस्य सत्र का अध्यक्ष होता है
2. धन बिल का निर्धारण स्पीकर करता है यदि धन बिल पे स्पीकर साक्ष्यांकित नही करता तो वह धन बिल ही नही माना जायेगा उसका निर्धारण अंतिम तथा बाध्यकारी होगा
3. सभी संसदीय समितियाँ उसकी अधीनता मे काम करती है उसके किसी समिति का सदस्य चुने जाने पर वह उसका पदेन अध्यक्ष होगा
4. लोकसभा के विघटन होने पर भी उसका प्रतिनिधित्व करने के लिये स्पीकर पद पर कार्य करता रहता है नवीन लोकसभा चुने जाने पर वह अपना पद छोड देता है

[संपादित करें] स्पीकर प्रोटेम [कार्यवाहक]

जब कोई नवीन लोकसभा चुनी जाती है तब राष्ट्रपति उस सदस्य को कार्यवाहक स्पीकर नियुक्त करता है जिसको संसद मे सदस्य होने का सबसे लंबा अनुभव होता है वह राष्ट्रपति द्वारा शपथ ग्रहण करता है
उसके दो कार्य होते है
1. संसद सदस्यॉ को शपथ दिलवाना
2. नवीन स्पीकर चुनाव प्रक्रिया का अध्यक्ष भी वही बनता है

[संपादित करें] उपस्पीकर

[संपादित करें] विधायिका[संसद - राज्य विधायिका] मे बहुमत के प्रकार

1. सामान्य बहुमत – उपस्थित सदस्यॉ तथा मतदान करने वालॉ के 50% से अधिक सदस्य ही सामान्य बहुमत है इस बहुमत का सदन की कुल सदस्य संख्या से कोई संबंध नही होता है
भारतीय संविधान के अनुसार अविश्वास प्रस्ताव, विश्वास प्रस्ताव, कामरोको प्रस्ताव, सभापति ,उपसभापति तथा अध्यक्षॉ के चुनाव हेतु सदन के यदि संविधान संशोधन का प्रस्ताव राज्य विधायिकाओं को भेजना हो ,सामान्य बिल , धन बिल, राष्ट्रपति शासन ,वित्तीय आपातकाल लगाने हेतु सामान्य बहुमत को मान्यता प्राप्त है यदि बहुमत के प्रकार का निर्देश न होने पर उसे सदैव सामान्य बहुमत समझा जाता है
2. पूर्ण बहुमत – सदन के 50% से अधिक सदस्यॉ का बहुमत [खाली सीटे भी गिनी जाती है] लोकसभा मे 273, राज्यसभा मे 123 सदस्यॉ का समर्थन . इसका राजनैतिक मह्त्व है न कि वैधानिक महत्व
3. प्रभावी बहुमत- मतदान के समय उपस्थित सदन के 50% से अधिक सदस्यॉ [खाली सीटॉ को छोडकर] यह तब प्रयोग आती है जब लोक सभा अध्यक्ष उपाध्यक्ष या राज्यसभा के उपसभापति को पद से हटाना हो या जब राज्यसभा उपराष्ट्रपति को पद से हटाने हेतु मतदान करे
4.विशेष बहुमत – प्रथम तीनो प्रकार के बहुमतॉ से भिन्न होता है इसके तीन प्रकार है
[क] अनु 249 के अनुसार- उपस्थित तथा मतदान देने वालॉ के 2/3 संख्या को विशेष बहुमत कहा गया है
[ख] अनु 368 के अनुसार – संशोधन बिल सदन के उपस्थित तथा सदन मे मत देने वालो के 2/3 संख्या जो कि सदन के कुल सदस्य संख्या का भी बहुमत हो [लोकसभा मे 273 सदस्य]इस बहुमत से संविधान संशोधन ,न्यायधीशॉ को पद से हटाना तथा राष्ट्रीय आपातकाल लगाना ,राज्य विधान सभा द्वारा विधान परिषद की स्थापना अथवा विच्छेदन की मांंग के प्रस्ताव पारित किये जाते है
[ग] अनु 61 के अनुसार – केवल राष्ट्रपति के महाभियोग हेतु सदन के कुल संख्या का कम से कम 2/3 [लोकसभा मे 364 सदस्य होने पर]


[संपादित करें] लोकसभा के सत्र

– अनु 85 के अनुसार संसद सदैव इस तरह से आयोजित की जाती रहेगी कि संसद के दो सत्रॉ के मध्य 6 मास
से अधिक अंतर ना हो पंरपरानुसार संसद के तीन नियमित सत्रॉ तथा विशेष सत्रों मे आयोजित की जाती है
सत्रॉ का आयोजन राष्ट्रपति की विज्ञप्ति से होता है
1. बजट सत्र वर्ष का पहला सत्र होता है सामान्यत फरवरी मई के मध्य चलता है यह सबसे लंबा तथा महत्वपूर्ण सत्र माना जाता है इसी सत्र मे बजट प्रस्तावित तथा पारित होता है सत्र के प्रांरभ मे राष्ट्रपति का अभिभाषण होता है
2. मानसून सत्र जुलाई अगस्त के मध्य होता है
3. शरद सत्र नवम्बर दिसम्बर के मध्य होता है सबसे कम समयावधि का सत्र होता है
विशेष सत्र – इस के दो भेद है 1. संसद के विशेष सत्र.
2. लोकसभा के विशेष सत्र
संसद के विशेष सत्र – मंत्रि परिषद की सलाह पर राष्ट्रपति इनका आयोजन करता है ये किसी नियमित सत्र के मध्य अथवा उससे पृथक आयोजित किये जाते है
एक विशेष सत्र मे कोई विशेष कार्य चर्चित तथा पारित किया जाता है यदि सदन चाहे भी तो अन्य कार्य नही कर सकता है
लोकसभा का विशेष सत्र – अनु 352 मे इसका वर्णन है किंतु इसे 44 वें संशोधन 1978 से स्थापित किया गया है यदि
लोकसभा के कम से कम 1/10 सद्स्य एक प्रस्ताव लाते है जिसमे राष्ट्रीय आपातकाल को जारी न रखने
की बात कही गयी है तो नोटिस देने के 14 दिन के भीतर सत्र बुलाया जायेगा
सत्रावसान – मंत्रिपरिषद की सलाह पे सदनॉ का सत्रावसान राष्ट्रपति करता है इसमे संसद का एक सत्र समाप्त
हो जाता है तथा संसद दुबारा तभी सत्र कर सकती है जब राष्ट्रपति सत्रांरभ का सम्मन जारी कर दे सत्रावसान की दशा मे संसद के
समक्ष लम्बित कार्य समाप्त नही हो जाते है
स्थगन – किसी सदन के सभापति द्वारा सत्र के मध्य एक लघुवधि का अन्तराल लाया जाता है इस से
सत्र समाप्त नही हो जाता ना उसके समक्ष लम्बित कार्य समाप्त हो जाते है यह दो प्रकार का होता है
1. अनिश्चित कालीन 2. जब अगली मीटिग का समय दे दिया जाता है
लोकसभा का विघटन— राष्ट्रपति द्वारा मंत्रि परिष्द की सलाह पर किया है इससे लोकसभा का जीवन समाप्त हो जाता है इसके बाद आमचुनाव ही होते है विघटन के बाद सभी लंबित कार्य जो लोकसभा के समक्ष होते है समाप्त हो जाते है किंतु बिल जो राज्यसभा मे लाये गये हो और वही लंबित होते है समाप्त न्ही होते या या बिल जो राष्ट्रपति के सामने विचाराधीन हो वे भी समापत नही होते है या राष्ट्रपति संसद के दोनॉ सदनॉ की लोकसभा विघटन से पूर्व संयुक्त बैठक बुला ले

[संपादित करें] विधायिका संबंधी कार्यवाही

/प्रक्रियाबिल/विधेयक के प्रकार कुल 4 प्रकार होते है
1.

[संपादित करें] सामान्य बिल

– इसकी 6 विशेषताएँ है
1. परिभाषित हो
2. राष्ट्रपति की अनुमति हो
3. बिल कहाँ प्रस्तावित हो
4. सदन की विशेष शक्तियॉ मे आता हो
5.कितना बहुमत चाहिए
6. गतिवरोध पैदा होना
यह वह विधेयक होता है जो संविधान संशोधन धन या वित्त विधेयक नही है यह संसद के किसी भी सदन मे लाया जा सकता है यदि अनुच्छेद 3 से जुडा ना हो तो इसको राष्ट्रप्ति की अनुंशसा भी नही चाहिए
इस बिल को पारित करने मे दोनो सदनॉ की विधायी शक्तिय़ाँ बराबर होती है इसे पारित करने मे सामान्य बहुमत
चाहिए एक सदन द्वारा अस्वीकृत कर देने पे यदि गतिवरोध पैदा हो जाये तो राष्ट्रपति दोनो सद्नॉ की संयुक्त बैठक मंत्रि परिषद की
सलाह पर बुला लेता है
राष्ट्रपति के समक्ष यह विधेयक आने पर वह इस को संसद को वापस भेज सकता है या स्वीकृति दे सकता है या अनिस्चित काल हेतु रोक सकता है

[संपादित करें] धन बिल

विधेयक जो पूर्णतः एक या अधिक मामलॉ जिनका वर्णन अनुच्छेद 110 मे किया गया हो से जुडा हो धन बिल कहलाता है ये मामलें है
1. किसी कर को लगाना,हटाना, नियमन
2. धन उधार लेना या कोई वित्तेय जिम्मेदारी जो भारत सरकार ले
3. भारत की आपात/संचित निधि से धन की निकासी/जमा करना
4.संचित निधि की धन मात्रा का निर्धारण
5. ऐसे व्यय जिन्हें भारत की संचित निधि पे भारित घोषित करना हो
6. संचित निधि मे धन निकालने की स्वीकृति लेना
7. ऐसा कोई मामला लेना जो इस सबसे भिन्न हो
धन बिल केवल लोकसभा मे प्रस्तावित किए जा सकते है इसे लाने से पूर्व राष्ट्रपति की स्वीकृति आवशय्क है इन्हें पास करने के लिये सदन का सामान्य बहुमत आवश्यक होता है
धन बिल मे ना तो राज्य सभा संशोधन कर सकती है न अस्वीकार
जब कोई धन बिल लोकसभा पारित करती है तो स्पीकर के प्रमाणन के साथ यह बिल राज्यसभा मे ले जाया जाता है राज्यसभा इस
बिल को पारित कर सकती है या 14 दिन के लिये रोक सकती है किंतु उस के बाद यह बिल दोनॉ
सदनॉ द्वारा पारित माना जायेगा राज्य सभा द्वारा सुझाया कोई भी संशोधन लोक सभा की इच्छा पे निर्भर करेगा कि वो स्वीकार करे
या ना करे जब इस बिल को राष्ट्रपति के पास भेजा जायेगा तो वह सदैव इसे स्वीकृति दे देगा
फायनेसियल बिल वह विधेयक जो एक या अधिक मनीबिल प्रावधानॉ से पृथक हो तथा गैर मनी मामलॉ से भी संबधित हो एक फाइनेंस विधेयक मे धन प्रावधानॉ के साथ साथ सामान्य विधायन से जुडे मामले भी होते है इस प्रकार के विधेयक को पारित करने की शक्ति दोनो सदनॉ मे समान होती


[संपादित करें] संविधान संशोधन विधेयक

अनु 368 के अंतर्गत प्रस्तावित बिल जो कि संविधान के एक या अधिक प्रस्तावॉ को संशोधित करना चाहता है संशोधन बिल कहलाता है यह किसी भी संसद सदन मे बिना राष्ट्रपति की स्वीकृति के लाया जा सकता है इस विधेयक को सदन द्वारा कुल उपस्थित सदस्यॉ की 2/3 संख्या तथा सदन के कुल बहुमत द्वारा ही पास किया जायेगा दूसरा सदन भी इसे इसी प्रकार पारित करेगा किंतु इस विधेयक को सदनॉ के पृथक सम्मेलन मे पारित किया जायेगा गतिरोध आने की दशा मे जैसा कि सामान्य विधेयक की स्थिति मे होता है सदनॉ की संयुक्त बैठक नही बुलायी जायेगी 24 वे संविधान संशोधन 1971 के बाद से यह अनिवार्य कर दिया गया है कि राष्ट्रपति इस बिल को अपनी स्वीकृति दे ही दे

[संपादित करें] विधेयक पारित करने मे आया गतिरोध

जब संसद के दोनॉ सदनॉ के मध्य बिल को पास करने से संबंधित विवाद हो या जब एक सदन द्वारा पारित बिल को दूसरा अस्वीकृत कर दे या इस तरह के संशोधन कर दे जिसे मूल सदन अस्वीकर कर दे या इसे 6 मास तक रोके रखे तब सदनॉ के मध्य गतिवरोध की स्थिति जन्म लेती है अनु 108 के अनुसार राष्ट्रपति इस दशा मे दोनॉ सदनॉ की संयुक्त बैठक बुला लेगा जिसमे सामान्य बहुमत से फैसला हो जायेगा अब तक मात्र तीन अवसरॉ पे इस प्रकार की बैठक बुलायी गयी है
1. दहेज निषेध एक्ट 1961
2.बैंकिग सेवा नियोजन संशोधन एक्ट 1978
3.पोटा एक्ट 2002
संशोधन के विरूद्ध सुरक्षा उपाय 1. न्यायिक पुनरीक्षा का पात्र है
2.संविधान के मूल ढांचे के विरूद्ध न हो
3. संसद की संशोधन शक्ति के भीतर आता हो
4. संविधान की सर्वोच्चता, विधि का शासन तीनॉ अंगो का संतुलन बना रहे
5. संघ के ढाँचे से जुडा होने पर आधे राज्यॉ की विधायिका से स्वीकृति मिले
6. गठबंधन राजनीति भी संविधान संशोधन के विरूद्ध प्रभावी सुरक्षा उपाय देती है क्योंकि एकदलीय पूर्ण बहुमत के दिन समाप्त हो चुके

[संपादित करें] अध्यादेश जारी करना

अनु 123 राष्ट्रपति को अध्यादेश जारी करने की शक्ति देता है यह तब जारी होगा जब राष्ट्रपति संतुष्ट हो जाये कि परिस्थितियाँ ऐसी हो कि तुरंत कार्यवाही करने की जरूरत है तथा संसद का 1 या दोनॉ सदन सत्र मे नही है तो वह अध्यादेश जारी कर सकता है यह अध्यादेश संसद के पुनसत्र के 6 सप्ताह के भीतर अपना प्रभाव खो देगा यधपि दोनो सदनॉ द्वारा स्वीकृति देने पर यह जारी रहेगा यह शक्ति भी न्यायालय द्वारा पुनरीक्षण की पात्र है किंतु शक्ति के गलत प्रयोग या दुर्भावना को सिद्ध करने का कार्य उस व्यक्ति पे होगा जो इसे चुनौती दे अध्यादेश जारी करने हेतु संसद का सत्रावसान करना भी उचित हो सकता है क्यॉकि अध्यादेश की जरूरत तुरंत हो सकती है जबकि संसद कोई भी अधिनियम पारित करने मे समय लेती है अध्यादेश को हम अस्थाई विधि मान सकते है यह राष्ट्रपति की विधायिका शक्ति के अन्दर आता है न कि कार्यपालिका वैसे ये कार्य भी वह मंत्रिपरिषद की सलाह से करता है यदि कभी संसद किसी अध्यादेश को अस्वीकार दे तो वह नष्ट भले ही हो जाये किंतु उसके अंतर्गत किये गये कार्य अवैधानिक नही हो जाते है राष्ट्रपति की अध्यादेश जारी करने की शक्ति पे नियंत्रण 1. प्रत्येक जारी किया हुआ अध्यादेश संसद के दोनो सदनो द्वारा उनके सत्र शुरु होने के 6 हफ्ते के भीतर स्वीकृत करवाना होगा इस प्रकार कोई अध्यादेश संसद की स्वीकृति के बिना 6 मास + 6 सप्ताह से अधिक नही चल सकता है
2. लोकसभा एक अध्यादेश को अस्वीकृत करने वाला प्रस्ताव 6 सप्ताह की अवधि समाप्त होने से पूर्व पास कर सकती है
3. राष्ट्रपति का अध्यादेश न्यायिक समीक्षा का विषय़ हो सकता है

[संपादित करें] संसद मे राष्ट्रपति का अभिभाषण

यह सदैव मंत्रिपरिषद तैयार करती है यह सिवाय सरकारी नीतियॉ की घोषणा के कुछ नही होता है सत्र के अंत मे इस पर धन्यवाद प्रस्ताव पारित किया जाता है यदि लोकसभा मे यह प्रस्ताव पारित नही हो पाता है तो यह सरकार की नीतिगत पराजय मानी जाती है तथा सरकार को तुरंत अपना बहुमत सिद्ध करना पडता है संसद के प्रत्येक वर्ष के प्रथम सत्र मे तथा लोकसभा चुनाव के तुरंत पश्चात दोनॉ सदनॉ की सम्मिलित बैठक को राष्ट्रपति संबोधित करता है यह संबोधन वर्ष के प्रथम सत्र का परिचायक है इन सयुंक्त बैठकॉ का सभापति खुद राष्ट्रपति होता है
अभिभाषण मे सरकार की उपलब्धियॉ तथा नीतियॉ का वर्णन तथा समीक्षा होती है[जो पिछले वर्ष मे हुई थी] आतंरिक समस्याओं से जुडी नीतियाँ भी इसी मे घोषित होती है प्रस्तावित विधायिका कार्यवाहिया जो कि संसद के सामने उस वर्ष के सत्रॉ मे लानी हो का वर्णन भी अभिभाषण मे होता है अभिभाषण के बाद दोनो सद्न पृथक बैठक करके उस पर चर्चा करते है जिसे पर्यापत समय दिया जाता है

[संपादित करें] संचित निधि

– संविधान के अनु 266 के तहत स्थापित है यह ऐसी निधि है जिस मे समस्त एकत्र कर/राजस्व जमा,लिये गये ऋण जमा किये जाते है यह भारत की सर्वाधिक बडी निधि है जो कि संसद के अधीन रखी गयी है कोई भी धन इसमे बिना संसद की पूर्व स्वीकृति के निकाला/जमा या भारित नहीं किया जा सकता है अनु 266 प्रत्येक राज्य की समेकित निधि का वर्णन भी करता है

[संपादित करें] भारत की लोक निधि

--- अनु 266 इसका वर्णन भी करता है वह धन जिसे भारत सरकार कर एकत्रीकरण प्राप्त आय उगाहे गये ऋण के अलावा एकत्र करे भारत की लोकनिधि कहलाती है कर्मचारी भविष्य़ निधि को भारत की लोकनिधि मे जमा किया गया है यह कार्यपालिका के अधीन निधि है इससे व्यय धन महालेखानियंत्रक द्वारा जाँचा जाता है अनु 266 राज्यॉ की लोकनिधि का भी वर्णन करता है

[संपादित करें] भारत की आपातकाल निधि

--- अनु 267 संसद को निधि जो कि आपातकाल मे प्रयोग की जा सकती हो स्थापित करने का अधिकार देता है यह निधि राष्ट्रपति के अधीन है इससे खर्च धन राष्ट्रपति की स्वीकृति से होता है परंतु संसद के समक्ष इसकी स्वीकृति ली जाती है यदि संसद स्वीकृति दे देती है तो व्यय धन के बराबर धन भारत की संचित निधि से निकाल कर इसमे डाल दिया जाता है अनु 267 राज्यॉ को अपनी अपनी आपातकाल निधि स्थापित करने का अधिकार भी देता है

[संपादित करें] भारित व्यय

--- वे व्यय जो कि भारत की संचित निधि पर बिना संसदीय स्वीकृति के भारित होते है ये व्यय या तो संविधान द्वारा स्वीकृत होते है या संसद विधि बना कर डाल देती है कुछ संवैधानिक पदॉ की स्वतंत्रता बनाये रखने के लिये यह व्यय प्रयोग लाये गये है अनु 112[3] मे कुछ भारित व्ययॉ की सूची है
1. राष्ट्रपति के वेतन,भत्ते,कार्यालय से जुडा व्यय है
2. राज्यसभा लोकसभा के सभापतियॉ उपसभापतियॉ के वेतन भत्ते
3.ऋण भार जिनके लिये भारत सरकार उत्तरदायी है [ब्याज सहित]
4.सर्वोच्च न्यायालय के न्यायधीशों के वेतन भत्ते पेंशन तथा उच्च न्यायालय की पेंशने इस पर भारित है
5. महालेखानियंत्रक तथा परीक्षक [केग] के वेतन भत्ते
6. किसी न्यायिक अवार्ड/डिक्री/निर्णय के लिये आवशयक धन जो न्यायालय/ट्रिब्न्यूल द्वारा पारित हो
7. संसद द्वारा विधि बना कर किसी भी व्यय को भारित व्यय कहा जा सकता है
अभी तक संसद ने निर्वाचन आयुक्तॉ के वेतन भत्ते पेंशन ,केन्द्रीय सर्तकता आयोग सदस्यॉ के वेतन भत्ते पेंशन भी इस पर भारित किये है

[संपादित करें] वित्त व्यवस्था पर संसद का नियंत्रण

अनु 265 के अनुसार कोई भी कर कार्यपालिका द्वारा बिना विधि के अधिकार के न तो आरोपित किया जायेगा और न ही वसूला जायेगा अनु 266 के अनुसार भारत की समेकित निधि से कोई धन व्यय /जमा भारित करने से पूर्व संसद की स्वीकृति जरूरी है
अनु 112 के अनुसार राष्ट्रपति भारत सरकार के वार्षिक वित्तीय लेखा को संसद के सामने रखेगा यह वित्तीय लेखा ही बजट है

[संपादित करें] बजट

1. अनुमानित आय व्यय जो कि भारत सरकार ने भावी वर्ष मे करना हो
2. यह भावी वर्ष के व्यय के लिये राजस्व उगाहने का वर्णन करता है
3. बजट मे पिछले वर्ष के वास्तविक आय व्यय का विवरण होता है
बजट सामान्यत वित्तमंत्री द्वारा सामान्यतः फरवरी के आखरी दिन लोकसभा मे प्रस्तुत किया जाता है उसी समय राज्यसभा मे भी बजट के कागजात रखे जाते है यह एक धन बिल है

[संपादित करें] कटौती प्रस्ताव

—बजट प्रक्रिया का ही भाग है केवल लोकसभा मे प्रस्तुत किया जाता है ये वे उपकरण है जो लोकसभा सदस्य कार्यपालिका पे नियंत्रण हेतु उपयोग लाते है ये अनुदानॉ मे कटौती कर सकते है इसके तीन प्रकार है
1.नीति सबंधी कटौती--- इस प्रस्ताव का ल्क्ष्य लेखानुदान संबंधित नीति की अस्वीकृति है यह इस रूप मे होती है ‘-------‘ मांग को कम कर मात्र 1 रुपया किया जाता है यदि इस प्रस्ताव को पारित कर दिया जाये तो यह सरकार की नीति संबंधी पराजय मानी जाती है उसे तुरंत अपना विश्वास सिद्ध करना होता है
2. किफायती कटौती--- भारत सरकार के व्यय को उससीमा तक कम कर देती है जो संसद के मतानुसार किफायती होगी यह कटौती सरकार की नीतिगत पराजय नहीं मानी जाती है
3. सांकेतिक कटौती--- इन कटौतीयों का ल्क्ष्य संसद सदस्यॉ की विशेष शिकायतें जो भारत सरकार से संबंधित है को निपटाने हेतु प्रयोग होती है जिसके अंतर्गत मांगे गये धन से मात्र 100 रु की कटौती की जाती है यह कटौती भी नीतिगत पराजय नही मानी जाती है

[संपादित करें] वोट ओन अकाउंट

---[हिन्दी अनुवाद ज्ञात नही] अनु 116 इस प्रावधान का वर्णन करता है इसके अनुसार लोकसभा वोट ओन अकाउंट नामक तात्कालिक उपाय प्रयोग लाती है इस उपाय द्वारा वह भारत सरकार को भावी वित्तीय वर्ष मे भी तब तक व्यय करने की छूट देती है जब तक बजट पारित नही हो जाता है यह सामान्यत बजट का अंग होता है किंतु यदि मंत्रिपरिषद इसे ही पारित करवाना चाहे तो यही अंतरिम बजट बन जाता है जैसा कि 2004 मे एन.डी.ए. सरकार के अंतिम बजट के समय हुआ था फिर बजट नयी यू.पी.ए सरकार ने पेश किया था 

वोट ओन क्रेडिट [हिन्दी शब्द लिखे] लोकसभा किसी ऐसे व्यय के लिये धन दे सकती है जिसका वर्णन किसी पैमाने या किसी सेवा मद मे रखा जा सक्ना संभव ना हो मसलन अचानक युद्ध हो जाने पे उस पर व्यय होता है उसे किस शीर्षक के अंतर्गत रखे?यह लोकसभा द्वारा पारित खाली चैक माना जा सकता है आज तक इसे प्रयोग नही किया जा सका है
जिलेटीन प्रयोग—समयाभाव के चलते लोकसभा सभी मंत्रालयों के व्ययानुदानॉ को एक मुश्त पास कर देती है उस पर कोई चर्चा नही करती है यही जिलेटीन प्रयोग है यह संसद के वित्तीय नियंत्रण की दुर्बलता दिखाता है

[संपादित करें] संसद मे लाये जाने वाले प्रस्ताव

[संपादित करें] अविश्वास प्रस्ताव

– लोकसभा के क्रियांवयन नियमॉ मे इस प्रस्ताव का वर्णन है विपक्ष यह प्रस्ताव लोकसभा मे मंत्रिपरिषद के विरूद्ध लाता है इसे लाने हेतु लोकसभा के 50 सद्स्यॉ का समर्थन जरूरी है यह सरकार के विरूद्ध लगाये जाने वाले आरोपॉ का वर्णन नही करता है केवल यह बताता है कि सदन मंत्रिपरिषद मे विश्वास नही करता है एक बार प्रस्तुत करने पर यह  प्रस्ताव् सिवाय धन्यवाद प्रस्ताव के सभी अन्य प्रस्तावॉ पर प्रभावी हो जाता है इस प्रस्ताव हेतु पर्याप्त समय दिया जाता है इस पर् चर्चा करते समय समस्त सरकारी कृत्यॉ नीतियॉ की चर्चा हो सकती है लोकसभा द्वारा प्रस्ताव पारित कर दिये जाने पर मंत्रिपरिषद राष्ट्रपति को त्याग पत्र सौंप देती है संसद के एक सत्र मे एक से अधिक अविश्वास प्रस्ताव नही लाये जा सकते है

विश्वास प्रस्ताव--- लोकसभा नियमॉ मे इस प्रस्ताव का कोई वर्णन नही है यह आवश्यक्तानुसार उत्पन्न हुआ है ताकि मंत्रिपरिषद अपनी सत्ता सिद्ध कर सके यह सदैव मंत्रिपरिषद लाती है इसके गिरजाने पर उसे त्याग पत्र देना पडता है निंदा प्रस्ताव--- लोकसभा मे विपक्ष यह प्रस्ताव लाकर सरकार की किसी विशेष नीति का विरोध/निंदा करता है इसे लाने हेतु कोई पूर्वानुमति जरूरी नही है यदि लोकसभा मे पारित हो जाये तो मंत्रिपरिषद निर्धारित समय मे विश्वास प्रस्ताव लाकर अपने स्थायित्व का परिचय देती है है उसके लिये यह अनिवार्य है कामरोको प्रस्ताव--- लोकसभा मे विपक्ष यह प्रस्ताव लाता है यह एक अद्वितीय प्रस्ताव है जिसमे सदन की समस्त कार्यवाही रोक कर तात्कालीन जन मह्त्व के किसी एक मुद्दे को उठाया जाता है प्रस्ताव पारित होने पर सरकार पे निंदा प्रस्ताव के समान प्रभाव छोडता है

[संपादित करें] संघीय न्यायपालिका

[संपादित करें] सर्वोच्च न्यायालय के न्यायधीशों की नियुक्ति

--- 25 जज तथा 1 मुख्य न्यायाधीश की नियुक्ति के प्रावधान का वर्णन संविधान मे है अनु 124[2] के अनुसार् मुख्य न्यायाधीश की नियुक्ति करते समय इच्छानुसार राष्ट्रपति अपनी इच्छानुसार सर्वोच्च न्यायालय उच्च न्यायालय के न्यायाधीशॉ की सलाह लेगा वही अन्य जजॉ की नियुक्ति के समय उसे अनिवार्य रूप से मुख्य न्यायाधीश की सलाह माननी पडेगी 

सुप्रीम कोर्ट एडवोकेट्स आन रिकार्ड एसो बनाम भारत संघ वाद 1993 मे दिये गये निर्णय के अनुसार सर्वोच्च न्यायालय ,उच्च न्यायालय के जजॉ की नियुक्ति तथा उच्च न्यायालय के जजॉ के तबादले इस प्रकार की प्रक्रिया है जो सर्वाधिक योग्य उपल्ब्ध व्यक्तियॉ की नियुक्ति की जा सके सी.जे.आई. का मत प्राथमिकता पायेगा वह एक मात्र अधिकारी होगा उच्च न्यायपालिका मे कोई नियुक्ति बिना उस की सहमति के नही होती है संवैधानिक सत्ताओं के संघर्ष के समय सी.जे आई. न्यायपालिका का प्रतिनिधित्व करेगा राष्ट्रपति सी.जे.आई. को अपने मत पर फिर से विचार करने को तभी कहेगा जब इस हेतु कोई तार्किक कारण मौजूद होगा पुनःविचार के बाद उसका मत राष्ट्रपति पे बाध्यकारी होगा यधपि अपना मत प्रकट करते समय वह सुप्रीम कोर्ट के दो वरिष्टम न्यायधीशों का मत जरूर लेगा पुनःविचार की दशा मे फिर से उसे दो वरिष्टम न्यायधीशॉ की राय लेनी होगी वह चाहे तो उच्च न्यायालय/सर्वोच्च न्यायालय के अन्य जजॉ की राय भी ले सकता है लेकिन सभी राय सदैव लिखित मे होगी
बाद मे अपना मत बदल्ते हुए न्यायालय ने कम से कम 4 जजॉ के साथ सलाह करना अनिवार्य कर दिया था वह कोई भी सलाह राष्ट्रपति को अग्रेषित नही करेगा यदि दो या ज्यादा जजो की सलाह इस्के विरूद्ध हो किंतु 4 जजॉ की स्लाह उसे अन्य जजॉ जिनसे वो चाहे सलाह लेने से नही रोकेगी

[संपादित करें] उच्च न्यायपालिका के न्यायधीशों की पदच्युति

—इस कोटि के जजॉ के राष्ट्रपति तब पदच्युत करेगा जब संसद के दोणो सदनॉ के कम से कम 2/3 उपस्थित तथा मत देने वाले तथा सदन के कुल बहुमत द्वारा पारित प्रस्ताव जो कि सिद्ध कदाचार या अक्षमता के आधार पे लाया गया हो के द्वारा उसे अधिकार दिया गया हो ये आदेश उसी संसद सत्र मे लाया जायेगा जिस सत्र मे ये प्रस्ताव संसद ने पारित किया हो अनु 124[5] मे वह प्रक्रिया वर्णित है जिस से जज पद्च्युत होते है इस प्रक्रिया के आधार पर संसद ने न्यायधीश अक्षमता अधिनियम 1968 पारित किया था इसके अंतर्गत

1. संसद के किसी भी सदन मे प्रस्ताव लाया जा सकता है लोकस्भा मे 100 राज्यसभा मे 50 सद्स्यॉ का समर्थन अनिवार्य है
2. प्रस्ताव मिलने पे सदन का सभापति एक 3 सद्स्य समिति बनायेगा जो आरोपों की जाँच करेगी समिति का अध्यक्ष सप्रीम कोर्ट का कार्यकारी जज होगा दूसरा सदस्य किसी हाई कोर्ट का मुख्य कार्यकारी जज होगा तीसरा सदस्य माना हुआ विधिवेत्ता होगा इस की जाँच रिपोर्ट सदन के सामने आयेगी यदि इस मे जज को दोषी बताया हो तब भी सदन प्रस्ताव पारित करने को बाध्य नही होता किंतु यदि समिति आरोपों को खारिज कर दे तो सदन प्रस्ताव पारित नही कर सकता है

अभी तक सिर्फ एक बार किसी जज के विरूद्ध जांच की गयी है जज रामास्वामी दोषी सिद्ध हो गये थे किंतु संसद मे आवश्यक बहुमत के अभाव के चलते प्रस्ताव पारित नहीं किया जा सका था

[संपादित करें] अभिलेख न्यायालय

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अनु 129 सुप्रीम कोर्ट को तथा अनु 215 उच्च न्यायालय को अभिलेख न्यायालय घोषित करता है यह संकल्पना इंग्लिश विधि से ली गयी है अभिलेख न्यायालय का अर्थ

[संपादित करें] त्रुटियां

परस्पर वीरोधी, मिलकत या संपदा का अधिकार मूल अधिकार रहा । कई साल तक शिक्षा का मूल अधिकार न होकर नीति के निदेशक के कारण भ्रष्टाचार में वृद्धि होती रही ओर गरीब, गरीब होते रहें ।

[संपादित करें] बाहरी कडियाँ

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